हे माँ वर दे! डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़ |
अकस्मात आवाज़ गूँजी -
"शरीफ साहब" मंच पर आइये।
चारों ओर देखा,
शायद कोई और भी शरीफ हो।
पर, मेरा भ्रम था।
तालियों की गूँज में, साहस कर,
जा बैठा मंच पर।
बड़े बड़े महारथी विराजमान थे।
कुछ मुँह बनाये, कुछ बेज़ार थे।
फिर मेरी बारी आई
और पढ़ना प्रारंभ किया -
"कागा सब उड़ जाइयो,
तुम खाइयो नहीं माँस।
चोंच भी नहीं मारियो,
मोहे पिया मिलन की आस।।"
साहित्य के महारथी क्रोधित हुए,
शेम, शेम के नारे लगाये।
आवाज़ आई - शरीफ साहब शर्म करें,
अमीर ख़ुसरो की "ज़मीन" इस्तेमाल न करें।
ज़मीन! अपनी ज़मीन कहाँ से लाऊँ?
मैं तो प्रवासी हूँ, शरणार्थी हूँ!!
अपनी ज़मीन, अपनी माँ को छोड़ आया हूँ!
वैसे भी यहाँ कौन अपनी "ज़मीन" पर घर बना रहा है?
जिसकी अपनी ज़मीन है वह भी -
दूसरों की ज़मीन, भावों, सोच-विचारों पर
महल बना रहा है।
मैं उन सपूतों की बात नहीं कर रहा
जिन्होंने ज्योति प्रदान की!!
जब भी ’कलम’ उठाता हूँ
अपनी लेखनी, हर पंक्ति पर,
पूर्वजों के भाव-विचार नज़र आते हैं।
कोई नई शकुन्तला, कामायनी, गीताजंली
कैसे लिखूँ?
शब्दों के दाँव-पेच, उलट-पुलट, जादूगरी से
कब तक मन बहलाऊँ!!
अपने पुत्रों को नये विचार
नई शकुन्तला, कामायनी, गीताजंली दे!
हे माँ वर दे!
कुछ नया पढने के लिए मिला इसलिए आपको बहुत बधाई. अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर.
ReplyDeletewww.nareshnashaad.blogspot.com
नाशाद जी , नमस्कार ,
ReplyDeleteकविता अच्छी लगी , धन्यवाद् |
आपका ब्लॉग देखा आपकी रूचि एवं प्रयास जानकर श्रधा बढ़ी |
शुभकामनाओं के साथ ....
डॉ. शरीफ
अमेरिका
ज़मीन! अपनी ज़मीन कहाँ से लाऊँ?
ReplyDeleteमैं तो प्रवासी हूँ, शरणार्थी हूँ!!
अपनी ज़मीन, अपनी माँ को छोड़ आया हूँ!
मन को छू गयीं ये पंक्तियाँ ..
संगीता बहन ,
ReplyDeleteआपके विचारों का स्वागत है | धन्यवाद् |
डॉ. शरीफ (अमेरिका)
राजीव जी,
ReplyDeleteनमस्कारम |
मेरे ब्लॉग में आपकी रूचि सराहनीय है | आपने निर्देशानुसार
मैं ने "नो"क्लिक कर दिया है | यदि उचित न हो तो मुझे बताईये |
डॉ. शरीफ ( अमेरिका )
दीपावली मुबारक !!
ReplyDeleteलो आ गयी दीपावली, मुबारक हो ,
दीप से दीप जले , रोशनी मुबारक हो l
मेरी दुआ है , भाई-चारा मुबारक हो ,
नई सुब्ह , नई किरण , मुबारक हो l
खारा प्रियतम
ReplyDeleteप्रकृति से अनुभव लेकर ,
इठलाती बलखाती चलकर ,
नित सपनों के गीत संजोये ,
कल-कल, छल-छल गाती फिरती ,
जाती हूँ साजन से मिलने |
पर वह कितना हरजाई है ,
मुझमें स्थित मीठेपन को
कर देता है खरा ||
देख तो आखिर प्रेम को मेरे
उसका खारापन भी मुझको
लगता है मीठा ||
न जाने कब से पागल 'बादल'
पीछा करता शोर मचाता -
वह ठहरा 'आकाश का वासी'
क्या जाने वह प्रेम धरा का !
वह ना पा मुझको रोता, गरजता ,
और नयनों से नीर बहता |
इतना रोता , इतना रोता
कर देता मुझको भी पागल |
अकुलाहट को देखकर उसकी ,
ह्रदय में मेरे तूफान है उठता |
धर मैं अपना रूप भयंकर ,
दौड़ी सजन के पास पहुँचती |
"सागर" साजन है विशाल ह्रदय ,
धीरे-धीरे थपकी देकर ,
ले लेता भयंकरता मेरी |
शायद बादल के आंसू से ,
हो गया है मेरा प्रियतम भी "खारा"
bahut dinon ke baad aapki fir ek pyari kavitaa parhi. achchha lagaa. aap raipir aaye to aur achchha lagegaa. shubhkaamanaye. isi tarah likhate rahe.
ReplyDeleteगिरीश भाई नमस्कार |
ReplyDeleteआपका स्नेह युक्त पत्र मिला , अच्छा लगा | रायपुर अवश्य आऊँगा ,
परन्तु अभी अभी तो यहाँ पहुंचा हूँ | दिखिए कब दाना-पानी बुलाता है |
आप सकुशल रहे यही प्रार्थना है |
डॉ. शरीफ
अमेरिका
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
bahut achche .
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