Tuesday, June 1, 2010

हमवतनों से
डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

करी हमनें जिन पे, दिल-ओ-जाँ निछावर,
वही आज पत्थर की मूरत बने हैं।
सही हमने जिनके लिए सारी ज़िल्लत,
वही हम-वतन पीठ फेरे खड़े हैं।

चढ़या फ़लक़ पे जिन्हें हमने अक्सर,
बहारों के नग्में सुनाये थे अक्सर।
ज़माने की दो-रंगी चालों में आकर,
वही ले के ख़ंजर आगे बढ़े हैं।

अमन की भला कौन बातें करे,
इन्हें ’पेट भरने’ की फिक्र है लगी।
ज़बानों का परचम लिए हाथ में,
इन्हें अपने ’मतलब’ की फिक्र है लगी।

ज़रा तो सोचे, ऐ नफ़रत करने वालो,
हम भी इन्साँ हैं, अपना बना लो।
यही वक़्त है मैल दिल से निकालो,
सम्भालो सम्भालो वतन को सम्भालो।

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