Tuesday, June 1, 2010

इस पार - उस पार
डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़


इस पार मधु है, बाला है,
उस पार का अल्ला हाफ़िज़ है,
इस पार को जन्नत समझे हो,
उस पार जहन्नुम हाज़िर है।

इस पार सुरा, सुर है, वोह है,
उस पर अकेले जाना है,
इस पार की अपनी फ़सलों को,
उस पार ही पाना, खाना है।

इस पार माँ के क़दमों तले,
उस पार की जन्नत रहती है,
उस पार की जन्नत पाने को,
इस पार की जन्नत पाना है।

इस पार की पावन धरती में,
उस पार की खुश्बू बसती है,
उस पार की खुश्बू पाने को,
इस पार की मिट्टी पाना है।

1 comment:

  1. खारा प्रियतम

    प्रकृति से अनुभव लेकर ,
    इठलाती बलखाती चलकर ,
    नित सपनों के गीत संजोये ,
    कल-कल, छल-छल गाती फिरती ,
    जाती हूँ साजन से मिलने |

    पर वह कितना हरजाई है ,
    मुझमें स्थित मीठेपन को
    कर देता है खरा ||

    देख तो आखिर प्रेम को मेरे
    उसका खारापन भी मुझको
    लगता है मीठा ||

    न जाने कब से पागल 'बादल'
    पीछा करता शोर मचाता -
    वह ठहरा 'आकाश का वासी'
    क्या जाने वह प्रेम धरा का !

    वह ना पा मुझको रोता, गरजता ,
    और नयनों से नीर बहता |
    इतना रोता , इतना रोता
    कर देता मुझको भी पागल |

    अकुलाहट को देखकर उसकी ,
    ह्रदय में मेरे तूफान है उठता |
    धर मैं अपना रूप भयंकर ,
    दौड़ी सजन के पास पहुँचती |

    "सागर" साजन है विशाल ह्रदय ,
    धीरे-धीरे थपकी देकर ,
    ले लेता भयंकरता मेरी |

    शायद बादल के आंसू से ,
    हो गया है मेरा प्रियतम भी "खारा"

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