Monday, October 12, 2009

मेरा देश महान

मेरा देश महान रे साथी , मेरा देश महान l
जात -पात के भेद भाव से , हमें है बचकर चलना ,
हिंदू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई , सबको एक समझना ,
प्यारी माता , धरती माता , हम तुझ पर बलिदान,
मेरा देश महान रे साथी , मेरा देश महान l
भरा स्वच्छ पानी नदियों में , जीवन का उल्ल्हास लिए ,
चहक-चहक कर गाते पक्षी, रंगों की बोछ्चार लिए ,
नन्हि- नन्ही बूंदों से , भरते हैं खेत खलिहान , मेरा देश महान रे साथी , मेरा देश महान l
सीमा पर हैं खड़े बहाद्दुर , सीना अपना ताने ,
चोके पार रहती हैं बहनें , पुष्ट हमें बनानें ,
खेतों पर हल बैल लिए , खड़ा है मस्त किसान ,
मेरा देश महान रे साथी , मेरा देश महान

12 comments:

  1. इस पार - उस पार
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़


    इस पार मधु है, बाला है,
    उस पार का अल्ला हाफ़िज़ है,
    इस पार को जन्नत समझे हो,
    उस पार जहन्नुम हाज़िर है।

    इस पार सुरा, सुर है, वोह है,
    उस पर अकेले जाना है,
    इस पार की अपनी फ़सलों को,
    उस पार ही पाना, खाना है।

    इस पार माँ के क़दमों तले,
    उस पार की जन्नत रहती है,
    उस पार की जन्नत पाने को,
    इस पार की जन्नत पाना है।

    इस पार की पावन धरती में,
    उस पार की खुश्बू बसती है,
    उस पार की खुश्बू पाने को,
    इस पार की मिट्टी पाना है।

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  2. ताज़ा हवा
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    दूर रह कर भी उसको भुला न सका,
    उसकी यादें मेरी ज़िन्दगी बन गई,
    रेखाओं से रेखाएँ मिलाता रहा,
    हाथ रुका तो उसकी छबी बन गई

    मैंने गोकुल में ढूँढा, गरुकुल में ढूँढा,
    ना राधा मिली, ना मीरा मिली,
    आँख झपकी तो उसने पुकारा मुझे,
    आँख खोला तो, ताज़ा हवा बन गई

    लोग आते रहे, लोग जाते रहे
    हम भी शामिल थे उसकी रुसवाई में
    जो होना था, वह तो हो ही गया
    दिल की धड़कन मेरी आरज़ू बन गई

    मैं भटकता रहा बादलों की तरह
    कभी गरजता, तो कभी बरसता रहा
    सिसकियों से उतारा, लहद में उसे
    मुँह से पर्दा हटा, रौशनी हो गई

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  3. मजबूरी
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    रोक सको तो चारुचन्द्र की
    चंचल किरणों को रोको,
    चकोर का इसमें दोष ही क्या
    यह है उसकी मजबूरी

    रोक सको तो गंगा की
    पावन लहरों के रोको,
    पापों की गठरी को धोना,
    यह है उसकी मजबूरी

    रोक सको तो वर्षा की
    नन्हीं बूँदों को रोको,
    वसुन्धरा तो महकेगी
    यह है उसकी मजबूरी

    रोक सको तो फूलों की
    मादकता को रोको
    मधुकर का मन रिझाना
    यह है उसकी मजबूरी

    रोक सको तो निरवलम्ब के
    बहते आँसू को रोको,
    नयनों को तो बहना है,
    यह है उसकी मजबूरी

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  4. मज़ार
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    बस्ती से दूर,
    सुनसान जंगल में,
    थी एक ’मज़ार’।
    सोचा चलकर ’ज़ियारत’ करें,
    विनती करें बिगड़ी बनाएँ।
    एक लम्बा रास्ता तै कर,
    पहुँचा जब ’मज़ार’ पर!
    पर यह क्या!!
    एक स्त्री-पुरुष, वस्त्रहीन,
    आमोद-प्रमोद में लीन!
    व्यस्थ थे!!

    यह देख मन विचलित हो गया।
    आशाओं पर पानी फिर गया।
    मैंने सोचा --
    जब इन दुष्टों को यह रोक नहीं सकते,
    तो मेरा क्या उद्धार करेंगे?

    लौटा मैं वापस, निर्धूत मन लिए,
    बग़ैर दुआ माँगे!
    रास्ते में एक पेड़ के नीचे,
    किया विश्राम कुछ देर,
    अक्समात लग गई आँख।
    स्वप्न में देखा --
    संबोधित हैं एक बुज़ुर्ग -
    "मुझसे मिले बग़ैर चले आये?"

    मैंने साहस कर दिया जवाब -
    "हज़ूर, अपने पास हो रहे
    कुकर्म को रोक नहीं सकते
    तो मेरे लिए क्या करेंगे?"

    ’बुज़ुर्ग’ मुस्कुराए और कहा --
    "इस नीली छतरी के नीचे
    क्या नहीं हो रहा?
    जब वह नीली छतरी वाला
    सब कुछ देख कर अनजान है,
    फिर मैं ते उसका
    एक अदना ’ग़ुलाम’ हूँ!
    तू अपना काम कर
    दुष्टों को अपना काम करने दे।"

    मेरी आँखें खुल गईं
    और
    वापस दौड़ पड़ा ’मज़ार’ की
    जानिब!!

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  5. रेखाएँ
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    आने वाला हर आगंतुक,
    साथ अपने लाता है,
    उम्र भर का धन, राशन!
    और उसे वह अवश्य
    प्राप्त होता है!!

    अब यह उस पर,
    निर्भर है,
    चाहे तो उचित मार्ग से,
    चाहे तो अनुचित मार्ग से,
    प्राप्त करे!!

    निर्धारित राशि से,
    न कम मिलेगा,
    न अधिक!
    फिर क्यूँ अनुचित मार्ग का
    चयन करें?
    निंदा का पात्र बनें??

    हाथ की रेखाएँ तो,
    मिटती-बनती रहती हैं!!
    फिर उनका क्या होगा?
    जिनकी रेखाएँ कम होती हैं
    या नहीं होतीं??

    रब के नेक बंदे,
    रेखाएँ बदल देते हैं!!
    फिर तुम नेक
    क्यूँ नहीं बनते!!

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  6. सत्यम्‌ शरणम्‌ गच्छामि
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    हमने पूछा--
    कहाँ महाराज?

    कहा--
    सत्य की तलाश में!

    पहिचानोगे कैसे?
    चुप रहे,
    अन्यमनस्क, विचलित से,
    कहना चाहा, कह न सके।

    हमने कहा-
    सत्य तो निराकार है!
    वह एक है,
    निराधार एवं सर्वाधार है!
    उसकी कोई संतान नहीं,
    न वह किसी की संतान है!
    कोई उसके बराबर नहीं!
    सब प्रशंसा उसी के लिए है!
    सारे संसार का पालनहार है!
    अत्यन्त कृपाशील एवं दयावान है!
    "अंतिम न्याय" के दिन का मालिक है।
    सब उसी की बंदगी करते हैं।
    उसी से मदद माँगते हैं!
    वही सीधा मार्ग दिखाता है!
    हर जगह विराजमान है!
    जल में, थल में।
    अवनी और अम्बर में।
    तुझमें - मुझमें!
    वह तो स्वयं कहता है--
    सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो,
    मत्त: स्मृतिर्ज्ञनमपोहनं च।
    वह हमारे इतने क़रीब है, कि,
    हम देख नहीं पाते।
    उसने सारे संसार की सृष्टि की।
    हर युग में अपना
    प्रतिनिधि भेजा।
    यही सत्य है!!

    महाराज सुनते रहे, फिर बोल पड़े-
    सत्यम्‌ शरणम्‌ गच्छामि!
    ईश्वरम्‌ शरणम्‌ गच्छामि!

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  7. हे माँ वर दे!
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    अकस्मात आवाज़ गूँजी -
    "शरीफ साहब" मंच पर आइये।
    चारों ओर देखा,
    शायद कोई और भी शरीफ हो।
    पर, मेरा भ्रम था।
    तालियों की गूँज में, साहस कर,
    जा बैठा मंच पर।
    बड़े बड़े महारथी विराजमान थे।
    कुछ मुँह बनाये, कुछ बेज़ार थे।
    फिर मेरी बारी आई
    और पढ़ना प्रारंभ किया -
    "कागा सब उड़ जाइयो,
    तुम खाइयो नहीं माँस।
    चोंच भी नहीं मारियो,
    मोहे पिया मिलन की आस।।"

    साहित्य के महारथी क्रोधित हुए,
    शेम, शेम के नारे लगाये।
    आवाज़ आई - शरीफ साहब शर्म करें,
    अमीर ख़ुसरो की "ज़मीन" इस्तेमाल न करें।

    ज़मीन! अपनी ज़मीन कहाँ से लाऊँ?
    मैं तो प्रवासी हूँ, शरणार्थी हूँ!!
    अपनी ज़मीन, अपनी माँ को छोड़ आया हूँ!
    वैसे भी यहाँ कौन अपनी "ज़मीन" पर घर बना रहा है?
    जिसकी अपनी ज़मीन है वह भी -
    दूसरों की ज़मीन, भावों, सोच-विचारों पर
    महल बना रहा है।
    मैं उन सपूतों की बात नहीं कर रहा
    जिन्होंने ज्योति प्रदान की!!
    जब भी ’कलम’ उठाता हूँ
    अपनी लेखनी, हर पंक्ति पर,
    पूर्वजों के भाव-विचार नज़र आते हैं।
    कोई नई शकुन्तला, कामायनी, गीताजंली
    कैसे लिखूँ?
    शब्दों के दाँव-पेच, उलट-पुलट, जादूगरी से
    कब तक मन बहलाऊँ!!

    हे माँ वर दे, हे माँ वर दे!
    अपने पुत्रों को नये विचार
    नई शकुन्तला, कामायनी, गीताजंली दे!
    हे माँ वर दे!

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  8. परछाइयाँ
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    बेकराँ सोज़ से लबरेज़ है परछाइयाँ,
    हर तरफ, हर सिम्त मिल जाती हैं परछाइयाँ
    जब कभी हम सुनाते हैं हाल -ए- दिल
    वो चली जाती हैं, मुस्कराती है परछाइयाँ

    मौत आएगी और चले जाऐंगे हम
    चंद यादें, मुस्कराहटें , रह जाऐंगी परछाइयाँ
    कह रहा है मौत से, काली रातों का सुक़ूत
    सुब्ह की पहली किरण, ले आएगी परछाइयाँ

    नफरतों को तर्क कर, प्यार करना सीख लो
    प्यार करना सीख लो, मुस्कुराना सीख लो
    ऊँच नीच के भेद - भाव, अगर बाक़ी रहे
    फिर तुम्हारे क़द से ऊँची हो जाएगी परछाइयाँ

    कौन कहता है, मौत आएगी, मर जाऊँगा, मैं
    मुस्कुराते, गीत गाते, आएगी, मेरी परछाइयाँ
    एक मुद्दत हो गई, गुज़रे हुए उनको ’शरीफ’
    रोज़ ख़्वाबों में नज़र आती है क्यों परछाइयाँ

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  9. अंग्रेज़ भोजन माँगेगा
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

    हिन्दी हमारी भाषा है,
    यही हमारी आशा है,
    यदी सच्ची सेवा करना है,
    यदी सच्चा सेवक बनना है,
    तो तोड़ फोड़ का त्याग करो
    दूसरी भाषाओं का सत्कार करो
    अंग्रेजी़ के "साइन बोर्ड" पर-
    स्याही फेरने से कुछ ना मिलेगा!
    मातृ भाषा पर कलंक लगेगा!
    क्या किसी अंग्रेज़ ने कहा कि-
    अंग्रेज़ी बोलो?

    परंतु तुम बोलते हो!
    मजबूर हो, बोलने पर!
    इस मजबूरी का बहिष्कार करो,
    हिन्दी का विस्तार करो
    नये नये अविष्कार करो
    फिर वह दिन भी आ जायेगा
    अंग्रेज़ "फूड" नही-
    भोजन माँगेगा!!

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  10. हमवतनों से
    डा. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़
    करी हमनें जिन पे, दिल-ओ-जाँ निछावर,
    वही आज पत्थर की मूरत बने हैं।
    सही हमने जिनके लिए सारी ज़िल्लत,
    वही हम-वतन पीठ फेरे खड़े हैं।

    चढ़या फ़लक़ पे जिन्हें हमने अक्सर,
    बहारों के नग्में सुनाये थे अक्सर।
    ज़माने की दो-रंगी चालों में आकर,
    वही ले के ख़ंजर आगे बढ़े हैं।

    अमन की भला कौन बातें करे,
    इन्हें ’पेट भरने’ की फिक्र है लगी।
    ज़बानों का परचम लिए हाथ में,
    इन्हें अपने ’मतलब’ की फिक्र है लगी।

    ज़रा तो सोचे, ऐ नफ़रत करने वालो,
    हम भी इन्साँ हैं, अपना बना लो।
    यही वक़्त है मैल दिल से निकालो,
    सम्भालो सम्भालो वतन को सम्भालो।

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  11. जय हिंद , वन्दे मातरम

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